महादेव शिवतत्व दीक्षा
सृष्टि के प्रारम्भ में आदि देव ब्रह्मा ने मनुष्य की रचना की, तो साथ साथ उसे यह वरदान भी दिया कि तुम्हारे जीवन में देवत्व हो और तुम अपनी इच्छाओं की पूर्ति के साथ उन्नति की ओर अग्रसर हो | मनुष्य तो सहज रूप में परमात्मा का अंश ही है – जिस प्रकार कोई भी पिता अपनी संतान में अपना प्रतिरूप देखना चाहता है, उसी प्रकार भगवान भी मनुष्य में अपना ही अंश जानते हुए उसे अपने ही गुणों से विभूषित करना चाहते हैं |
मूलतः पांच देवों को ही आधार देव मना गया है | ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य ओर शक्ति इन पांच आदि देवों से ही अन्य अधिदेवों की उत्पत्ति हुई है अथवा श्रेष्ठ मनुष्यों को अपने कार्यों द्वारा देवत्व प्राप्त हुआ है | भारतीय दर्शन के अनुसार ३३ करोड़ देवी-देवता माने गए हैं, जिनमें अग्नि, वरुण, इंद्र, गणेश, कार्तिकेय, वायु, कुबेर, क्षेत्रपाल, यम, शनि, हनुमान इत्यादि प्रमुख देव हैं एवं काली, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, बगलामुखी, तारा आदि प्रमुख देवियाँ हैं, जिनकी प्रत्येक स्थान पर अलग अलग स्वरूपों में पूजा होती है | हमारे यहाँ तो पितृश्वरों को भी अर्थात पूर्वजों को भी, जो घर परिवार की रक्षा करते हैं, देव मना गया है |
भारतीय दर्शन के मतानुसार जीव अपनी दुष्ट प्रकृति के कारण कुसंस्कारों की ओर प्रवृत्त हो जाता है, वह शिवतत्व धारण न कर राक्षस प्रवृति धारण कर लेता है | इसी कारणवश मनुष्य में झूठ, छल, कपट, हिंसा, व्यभिचार इत्यादि कुसंस्कार आ जाते हैं | परिणाम स्वरुप वह देवत्व धारण करने की अपेक्षा अपनी दूसरी योनी में राक्षसत्व धारण कर लेता है |
पौराणिक ग्रंथों में हजारों राक्षसों का वर्णन मिलता है, समुद्र मंथन भी देवताओं व राक्षसों द्वारा ही सम्पन्न हुआ था | यह सत्य है, कि जब-जब संसार में राक्षसी प्रवृतियाँ उभरने लगती हैं, तब तब इश्वरी शक्ति देवताओं का मार्ग दर्शन करने हेतु अवतरित होती हैं और पुनः संसार में श्रेष्ठता की स्थापना होती है | इससे यह तो स्पष्ट है, कि शिव शक्ति या देवताओं को आवहान किया जा सकता है और वे सगुण अथवा निर्गुण रूप में उपस्थित होकर मनुष्य को सहयोग करते हैं | यह भी निश्चित है कि जिस प्रकार एक बालक कष्ट में अपनी माँ को पुकारता है और माँ उसका कष्ट निवारण करने के लिये तत्काल आ जाती है, उसे अपने ह्रदय से लगा लेती है, ठीक उसी प्रकार शिव अपनी ही प्रजाति मनुष्य के सहयोग के लिये तत्पर रहते हैं, परन्तु उसके लिये आवश्यक है कि उनका आह्वान उचित रूप से किया जाए | ‘महादेव शिवतत्व दीक्षा’ प्राप्त साधक के एक बार मान से पुकारने पर शिव उसकी सहायता को निरंतर तत्पर रहते हैं |
भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है –
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमावाप्स्यथ
अर्थात देव जो कि शक्तिभाव से युक्त हैं, जिनमें सकारात्मक शक्ति हैं, उन्हें मनुष्य भावपूर्ण रूप से प्रसन्न करें, तो देवता भी भावपूर्ण रूप से मनुष्य को पूर्ण सुख देने में सहयोगी बनते हैं, इस प्रकार दोनों एक दूसरे को सहयोग दें तभी मनुष्य पूर्णता प्राप्त कर सकता है | इस श्लोक से यह स्पष्ट है, कि शिव आह्वान सम्भव है और देवता मनुष्य के लिये सहयोगी हैं |
मनुष्य अपनी चित्तवृतियों का किस प्रकार से उपयोग करता है यह उसके स्वं पर निर्भर करता है
जीव जब शरीर धारण करता है, तो उसके अन्दर दोनों ही तत्व विद्यमान होते हैं – राक्षस तत्व और शिव तत्व | अब यह उसके ऊपर निर्भर करता है, कि वह किसका विकास करे | यदि पूर्व संस्कार बहुत अच्छे हैं, तभी देव वृत्ति जन्म से ही व्याप्त होती है... अन्यथा राक्षसी वृतियों के अधिक हावी होने के फलस्वरूप, मनुष्य अपने जीवन कि प्रारम्भिक आयु में ही माया के वशीभूत होकर अपने देवत्व का विस्मरण कर देता है | उसके अन्दर का राक्षसत्व उभर कर बाहर आता है, तथा उसके अन्दर लालच, लोभ, क्रोध, ईर्ष्या, वासना, आलस्य आदि अनेक विकार पनपने लगते हैं और उसके अन्दर का देवत्व एक तरह से दब जाता है |
देवता और राक्षस परस्पर विपरीत स्वाभाव एवं गुणधर्म वाली शक्तियां हैं, जिनके फलस्वरूप धर्म व सत्य का स्थापन अथवा नाश सम्भव होता है | देव एवं राक्षस वृतियां ब्रह्माण्ड में विचरण करती रहती हैं और अपना-अपना प्रभाव प्रत्येक जीव पर डालने का प्रयास करती रहती हैं | इनमें भी राक्षस तत्व शीघ्रता से व्यक्ति पर हवी हो जाता है | आसुरी शक्तियां व्यक्ति के मान पर शीघ्रता से अधिकार जमा लेती हैं | इसके विपरीत बिना आवाहन के अथवा बिना निमंत्रण के देवता उपस्थित नहीं होते हैं, परन्तु जब वे उपस्थित होते हैं, तो साधक को देव गुणों से युक्त कर पूर्ण कर देते हैं | संस्कार तो जीव के अन्दर दोनों ही होते हैं, चाहे राक्षस तत्व प्रधान हो या देव तत्व प्रधान... यह तो व्यक्ति के स्वं के हाथ में होता है, कि वह किस दिशा की ओर गतिशील होता है | सफलता तो दोनों ही रास्तों में मिलती है, विनाश करके भी प्रसिद्धि प्राप्त हो सकती है, निर्माण करके भी प्राप्त हो सकती है | फिर देवत्व का ही पथ क्यों ?
क्योंकि शिवतत्व का जीवन में आह्वान अथवा जागरण ही जीवन का सौभाग्य है | यह देवत्व जागृत होना इतना भी सहज नहीं है, क्योंकि इसके लिए तो बहुत संघर्ष करना पड़ता है, अंतर् द्वंद् करना पड़ता है अपने ही अन्दर की चित्त वृतियों से जिन्होंने राक्षसी वेश धारण कर लिया है
ओर अगर राक्षसी वृत्तियों के ऊपर हमारे का देवत्व हावी नहीं हो सकता, तो कौन हमारे देवत्व को जागृत कर सकता है ?
... जीवन में यदि कोई यह कार्य कर सकता है, तो केवल ओर केवल मात्र सदगुरु ही कर सकते हैं
यदि जीवन में सदगुरु मिल जाएं, ओर शिष्य के अन्दर यह विचार आ जाए, कि उसे जीवन में कमाल के समान पवित्र ओर निर्मल बनना है, अपने देवत्व का जागरण करना है, तो वह क्षण ही उसके जीवन कि एक क्रांतिकारी घटना बन जाती है |
इसी क्षण कि तो प्रतीक्षा करते हैं सदगुरु, कि कब शिष्य को स्वं बोध हो जाए, कि इस मॉल मूत्र भरे वातावरण में जिन्दगी गुजार देना ही जीवन कि श्रेष्ठता नहीं है... अपितु जीवन में यदि कुछ करना है, तो अपने शिवतत्व को जाग्रत करना पड़ेगा | ओर जब शिष्य अपने प्रयास से अपनी वृत्तियों पर विजय नहीं प्राप्त कर पाता है, तब गुरुदेव उसे कृपा करके ‘महादेव शिवतत्व दीक्षा’ देते हैं |
और जब यह दीक्षा प्राप्त हो जाती है, तो फिर साधक कोई सामान्य व्यक्तित्व रह ही नहीं सकता, उसके अन्दर राम, बुद्ध, कृष्ण, कुबेर, गणेश, देवताओं के गुण स्वतः ही फलने-फूलने लगते हैं |
व्यक्ति अपने कर्मों और अपने गुणों के अनुसार ही तो पूज्य अथवा घृणित बन जाता है, दैत्य अथवा देवता बन जाता है | मंदिर यदि होते हैं, तो देवताओं के ही होते हैं, पूजा यदि होती है, तो देवताओं की ही होती है, राक्षसों के मंदिर नहीं हुआ करते, न ही उनकी पूजा होती है |
जब छल-कपट, व्यभिचार, ईश्वर में अनास्था पूरी तरह हावी हो चुकी थी, तब पूज्यपाद सदगुरुदेव को सृष्टि के नियमानुसार आना ही पड़ा एक संतुलन को बनाए रखने के लिए | सदगुरुदेव ने अपने एक प्रवचन में इस बात का स्पष्ट संकेत दिया है, कि वे लोग जो साधना शिवरों में पहुँच कर अथवा गुरुधाम पहुँच कर साधना में भाग ले रहे हैं, वे कोई सामान्य मनुष्य नहीं अपितु शिव के अंश हैं
पूज्यपाद सदगुरुदेव के सान्निध्य में आया हुआ व्यक्ति सामान्य हो ही नहीं सकता, यह अलग बात है, कि उसे अपने अन्दर के देवत्व का अभी बोध नहीं हो पाया हो | इसलिए देवत्व से बोध होने का नाम ‘महादेव शिवतत्व जागरण दीक्षा’ है |
इस अंधकारमय वातावरण में सफलता, यश, मान आदि जब मात्र रिश्वतखोरी, तिकडम और कूटनीति द्वारा ही प्राप्य समझी जाने लगी है, और अनाचार सिर से ऊपर तक निकल गया है, तब ऐसे देवताओं का क्रियाशील होना आवश्यक हो गया है | ‘महादेव शिवतत्व जागरण दीक्षा’ ही तो वह बिंदु है, जिससे गुरुदेव उन बीजों का शिष्य के अन्दर स्थापन करते हैं, जिससे वह सर्वगुण सम्पन्न बनने की ओर अग्रसर हो जाता है, उसके अन्दर का कृष्णत्व, उसके अन्दर का बुद्धत्व, उसके अन्दर का शिवत्व, उसके अन्दर का कुबेरत्व जाग्रत होने लगता है |
... और जब देवत्व जाग्रत हो जाता है, तब पुनः याचना करने की आवश्यकता नहीं होती, उसमें तो स्वंय प्रदान करने की शक्ति आ जाती है, क्योंकि जो दे वही देवता है, जिसके अन्दर देने की क्षमता आ जाती है, वही देवता है |
राक्षस का कार्य तो छीन लेना है, झपट लेना है, दबोच लेना है | परन्तु देवता छीनता नहीं है, झपटता नहीं है, हावी नहीं होता है, वह तो एक दिव्य प्रेम के वशीभूत होकर, करुना से आप्लावित होकर सहज ही वह सब कुछ प्रदान कर देता है, जो उसके पास है |
देवों के देव भगवान शिव को ‘महादेव’ इसलिए तो कहा गया है,
क्योंकि देवत्व के गुण उनमें ही सबसे अधिक विकसित हैं,
उनके समान दाता, औढरदानी कोई दूसरा मिलता नहीं है
और जब व्यक्ति में देव गुण जाग्रत हो जाते हैं, तो फिर उसे याचा नहीं करनी पड़ती, फिर धन, संपदा, ऐश्वर्य, कीर्ति, ज्ञान, आनन्द, प्रेम, वात्सल्य, सफल पदार्थ से उपलब्ध होते हैं, क्योंकि समस्त देवताओं की कृपा नहीं अपितु सहयोग उसे प्राप्त हो जाता है | फिर देवता उसके आराध्य नहीं रहते, वे तो उसके मित्रवत हो जाते हैं | यदि उसके कोई आराध्य होते हैं, तो केवल और केवल मात्र गुरु ही होते हैं, जिन्होंने उसे मनुष्य से देवता बनाया है |
शिष्य तो देवता होता ही है, क्योंकि देव संस्कारों से युक्त हुए बिना यह सम्भव ही नहीं कि किसी व्यक्ति को परम सत्ता कि कृपा प्राप्त हो और उसे सदगुरु का संग प्राप्त हो, उनके चरणों में शरण प्राप्त हो | उन्हीं सुप्त देव संस्कारों को जगाना ही तो शिष्य के जीवन का हेतु होता है, आत्मबोध की यही तो भाव भूमि होती है कि शिष्य अपने स्व से साक्षात्कार कर ले, अपने स्वरुप को देख सके, और पहिचान सके कि वास्तव में वह कितनी ऊंचाई तक उठा हुआ है |
इसी आत्मबोध के अभाव में व्यक्ति दुखी रहता है, वह सोचता है कि पता नहीं सदगुरुदेव ने मुझे कुछ प्रदान किया भी है या नहीं, इतनी साधनाओं को सम्पन्न किया है, वह सफलीभूत हुई भी हैं या नहीं, यह सभी कुछ पूछने की फिर उसे आवश्यकता नहीं रह जाती है, क्योंकि फिर वह स्वं अपने देवत्व से देख सकेगा, और अपनी अप्रकट विशाल क्षमताओं से साक्षात् कर सकेगा | तब उसे अहसास हो सकेगा, कि सद्गुरु कृपा क्या होती है, तब उसे भान हो पाएगा, कि गुरुदेव ने तो उसे इतना कुछ प्रदान कर दिया है, जितने की उसने तो कामना भी नहीं की थी |
जब तक अंतः करण में दीपक प्रज्ज्वलित नहीं होता, जब तक अन्दर ज्ञान की चेतना जागृत नहीं होती, जब तक आत्म-चक्षु पूर्णरूप से जागृत नहीं होते, जब तक कुण्डलिनी सहस्त्रार पर जाकर नृत्य नहीं करती तब तक अपने इस देवत्व से साक्षात् नहीं हो पाता है, इसी साक्षात्कार की स्थिति को महादेव शिवतत्व जागरण दीक्षा की संज्ञा से विभूषित किया गया है |