१,२ एवं ३ जुलाई अमरकंटक
गुरु पूर्णिमा तो गुरु-ऋण से उऋण होने का पर्व है
प्रिय आत्मीय मानस के राजहंसों !
आषाढ का पहला दिन ही इन्द्र धनुष के पथ पर गुरु का नाम अंकित कर देता है, और उन रंगों को शिष्य अपने मन में उत्तर कर मानस के मानसरोवर में गहरी डुबकी लगाता हुआ, अत्यंत प्रफुल्लता से अपने पंखों को अमृत में भिगोकर आह्लाद और प्रसन्नता के पंखों को फडफडाता हुआ नील गगन में उड़ कर इन्द्र धनुष के रंगों में खो जाने को ही जीवन कि पूर्णता जानता है
और शिष्य भी आषाढ के पहले दिन से ही गुरु पूर्णिमा कि प्रतीक्षा करता रहता है, क्योंकि यह सही अर्थोंमें शिष्य का अपना स्वंय का पर्व है, यह शिष्य के आत्मीय जीवन का लेखा-जोखा है, यह तुम्हारे प्राणों पर अंकित मेरे सन्देश का पर्व है, आनंद दायक क्षण है, क्योंकि इसी पर्व के लिए आषाढ कि छोटी – छोटी बूंदे श्रद्धा बन कर गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु रुपी समुन्द्र में एकाकार हो जाने के लिए प्रयत्नशील रहती हैं
यह पर्व सही अर्थों में गुरु का पर्व है ही नहीं, यह तो शिष्य पर्व है, इसे शिष्य पूर्णिमा कहा जाता है, क्योंकि यह शिष्य के जीवन का एक अन्तरंग और महत्वपूर्ण क्षण है, यह उसके लिए उत्सव का आयोजन है, यह मन कि प्रसन्नता को व्यक्त करने का त्यौहार है, यह एक ऐसा पर्व है जो जीवन कि प्रफुल्लता, मधुरता और समर्पण के पथ पर गुरु के चरण चिन्ह अंकित कर अपने आपको सौभाग्य शाली मानते हैं
यदि तुम मेरे आत्मीय हो, मेरे प्राणों के घनीभूत स्वरुप हो, मेरे जीवन का रस और चेतना हो तो यह निश्चय ही तुम्हारे लिए उत्सव, आनंद और सौभाग्य का पर्व है, क्योंकि शिष्य अपने जीवन कि पूर्णता तभी पा सकता है, जब वह गुरु-ऋण से उऋण हो जाये, माँ ने तो केवल तुम्हारी देह को जन्म दिया, पर मैंने उस देह को संस्कारित किया है, उसमें प्राणश्चेतना जाग्रत कि है, उस तेज तपती हुई धूप में वासन्ती बहार का झोंका प्रवाहित किया है, मैंने उस तपते हुए भूखण्ड पर आनन्द के अमिट अक्षर लिखने कि प्रक्रिया की है, और मैंने तुम्हें “पुत्र” शब्द से, “आत्मीय” शब्द से, “प्राण” शब्द से सम्बोधित किया है
मैंने तुम्हारे जीवन में वह प्रक्रिया संपन्न की है जो और कोई संपन्न नहीं कर सके हैं, मैंने तुम्हारे जीवन में वह चेतना दी है जो अन्य लोगों के बस की बात नहीं है, मैंने तुममें मधुरता, और साधना की गंगा प्रवाहित की है, जिसमें स्नान कर तुम समाज के इन मैले कुचैले लोगों से अलग और दैदीप्यमान नजर आने लगे हो, तुम्हारे चेहरों पर एक प्रभा मंडल बनने लगा है, तुम्हारी वाणी में एक तेज और क्षमता आने लगी है, तुम्हारे शब्दों में प्रभाव उत्पन्न होने लगा है
और यह गुरु के द्वारा संभव हो सका है, यह इस जीवन का ही नहीं, कई-कई जन्मों का लेखा-जोखा है, में तुम्हारे इस जन्म का साक्षीभूत गु ही नहीं हूँ, अपितु पिछले पच्चीस जन्मों का लेखा-जोखा, हिसाब-किताब मेरे पास है, और हर बार मैंने तुम्हें आवाज़ दी है, और तुमने अनसुनी कर दी है, हर बार तुम्हारे प्राणों की चौखट पर दस्तक दी है, और हर बार तुम किवाड़ बंद कर के बैठ गये हो, हर बार मैंने तुम्हें झकोरने का, जाग्रत करने का, चैतन्यता प्रदान करने का प्रयास किया है, और हर बार तुमने अपना मुह गृहस्थ और समाज की भुरभुरी रेत में छिपाकर अनदेखा अनसुना कर दिया है
पर यह कब तक चलेगा, कितने-कितने जन्मों तक तुम्हारी चुप्पी, तुम्हारी यह कायरता, तुम्हारी यह बुदजिली मुझे पीड़ा पहुंचाती रहेगी, कब तक में गला फाड़-फाड़ कर आवाजें देता रहूँगा और तुम अनसुनी करते रहोगे, कब तक में तुम्हारा हाथ पकड़ कर “ सिद्ध योगा “ झील के किनारे ले जाने का प्रयास करूँगा और तुम हाथ छुड़ाकर समाज की उस विषैली वायु में साँस लेने के लिए भाग खड़े होगे, ऐसा कब तक होगा, ऐसा कब तक चलेगा, इस प्रकार से कब तक गुरु को पीड़ा पहुंचाते रहोगे, कब तक उसके चित पर अपने तेज और नुकीले नाखूनों से घाव करते रहोगे, कब तक उसके प्राणों को वेदना देते रहोगे
मैंने तुम्हें अपना नाम दिया है, और इससे भी बढकर मैंने तुम्हें अपना पुत्र और आत्मीय कहा है, अपना गोत्र तुम्हें प्रदान किया है, और अपने जीवन के रस से सींच-सींच कर तुम्हारी बेल को मुरझाने से बचाने का प्रयास किया है, तुम्हारी सुखी हुई टहनियों में फिर नई कोपलें आवें, फिर वातावरण सौरभमय बने, मैंने जीवन के प्रत्येक क्षण को इसके लिए लगाया है, अपने जवानी को, हिमालय के पथरों पर घिस-घिस कर तुम्हें अमृत पिलाने का प्रयास किया है, तुम्हारे प्रत्येक जन्म में मैंने तुम्हारे मुरझाये हुए चेहरे पर एक खुशी, एक आह्लाद, एक चमक प्रदान करने का प्रयास किया है
पर यह सब कुछ यों ही नहीं हो गया, इसके लिए मुझे तुमसे भी ज्यादा परिश्रम करना पड़ा है, मैंने अपने शरीर की बाती बना कर तुम्हारे जीवन के अंधकार में रोशनी बिखेरने का प्रयत्न किया है, अपने प्राणों का दोहन कर उस अमृत जल से तुम्हारी बेल को सींचने का और हरी-भरी बनाये रखने का प्रयास किया है, तिल-तिल कर अपने आप को जलाते हुए भी, तुम्हारे चेहरे पर मुस्कराहट देने की कोशिश की है, और मेरा प्रत्येक क्षण, जीवन का प्रत्येक चिंतन इस कार्य के लिए समर्पित हुआ है, जिससे कि मेरे मानस के राजहंस अपनी जाति को पहिचान सकें, अपने स्वरुप से परिचित हो सकें, अपने गोत्र से अभिभूत हो सकें, और मेरे ह्रदय के इस मान सरोवर में गहराई के साथ डुबकी लगा कर लौटते समय मोती ला सकें
और यह हर बार हुआ है, और यह पिछले कई जन्मों से होता रहा है, क्योंकि मैंने हर क्षण तुम्हारे लिए ही प्रयत्न किया है, मेरा जीवन अपने स्वंय के लिए या परिवार के लिए नहीं है, मेरा जीवन तो शिष्यों के लिए है, मेरे जीवन का उद्देश्य तो शिष्यों को पूर्णता देने का प्रयास है, और इसके लिए मैंने सिद्धाश्रम जैसा आनन्ददायक और अनिवर्चनीय आश्रम छोड़ा, और तुम्हारे इस मैले कुचैले, गलियारों में आकार बैठा, जो वायुवेग से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए सक्षम था, उसने तुम्हारे लिए अपने आप को एक छोटे से वाहन में बन्द कर लिया, जिसका घर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड था, और किसी भी ग्रह या लोक में विचरण करता हुआ निरंतर आनन्दयुक्त था, उसने तुम्हारे लिए अपने आप को एक छोटे से घर में आबद्ध कर लिया, तुम्हारे लिए समाज से जूंझा, आलोचनायें सुनी, गलियां खाई, और कई प्रकार के कुतर्कों का सामना किया, यह सब क्यों ? क्या जरूरत थी उसे मुझे सब सहन करने कि, झेलने कि, भुगतने की ?
पर यह आवश्यक था, तुम्हारी वजह से आवश्यक था, तुम्हें अपने साथ सिद्धाश्रम ले जाने के लिए आवश्यक था, तुम्हें सिद्धयोगा झील के किनारे बैठाने के लिए आवश्यक था, और आवश्यक था उन ऋषियों, मुनियों, योगियों के दर्शन कराने के लिए, उस ब्रह्म स्वरुप स्वामी सच्चिदानंद जी के चरणों में बिठाने के लिए, और आवश्यक था तुम्हारे जीवन की मलिनता, तुम्हारे जीवन दोष और तुम्हारे जीवन के पापों को समाप्त करने के लिए
और मैंने ऐसा किया, मेरा प्रत्येक क्षण इस बात के लिए कृतसंकल्प था, और है कि मैं तुम्हें समाज में गर्व से सिर तान कर खड़ा रहने की प्रेरणा दूं, मैं तुम्हें इस गंदगी से भरे समाज में देवदूत बनाकर खड़ा कर सकूं, तुम्हारी आँखों में एक चमक पैदा कर सकूं, तुम्हारे पंखों में इतनी ताकत दे सकूं, कि वह आकाश में सुदूर ऊंचाई पर बिना थके पहुँच सकें, और उस ब्र्हमत्व का आनंद ले सकें, मैं तुम्हें उन इन्द्र धनुष के रंगों पर रंग बिखेरने के लिए तैयार कर सकूं, जहाँ विस्तृत आकाश हो, जहां आनन्द का समुद्र लहलहा रहा हो, जहाँ प्रेम और माधुर्यता की शीतल बयार हो, जहाँ पूर्णता और सिद्धियाँ जयमाला लिए तुम्हारे गले में हार डालने के लिए उद्दत और उत्सुक हो
और यह सब बराबार हो रहा है, तुमने अपने आपको पहली बार पहिचानने का प्रयत्न किया है, पहली बार यह अहसास किया है कि तुम संसार में अकेले नहीं हो, कोई तुम्हारा रखवाला अवश्य है, जो तुम्हारे जीवन कि बराबर चौकीदारी कर रहा है, कोई ऐसा व्यक्तित्व तुम्हारे जीवन में अवश्य है, जिसे अपनी चिंताए, परेशानियां और समस्यांए खुशी-खुशी देकर अपने आपको हल्का कर सकते हो, और मुझे तुम जो दे रहे हो, उससे मुझे प्रसन्नता है
मैं तो तुम्हें स्पष्ट रूप से कहता आया हूँ, कि जब जिंदगी के इस मोड़ पर मैं तुमसे मिला हूँ, तो फिर तुम्हें अपनी आँखें खोल देनी चाहिए, अपने तन्द्रा से जाग कर मुझे पहिचानने का प्रयास करना चाहिए, तुम मृत्यु की जिस पगडण्डी पर बढ रहे हो, उससे पलट कर मेरा हाथ पकड़ लेना चाहिए, मेरे पांवों से पांव मिला कर बढना चाहिए, क्योंकि में तुम्हें जिस रास्ते पर गतिशील कर रहा हूँ, वह अमृत्यु का रास्ता है, वह आनन्द का पथ है, वह सिद्धाश्रम का मार्ग है, जहाँ सर्वत्र प्रसन्नता आह्लाद, खुशी, चेतना और प्रफुल्लता है, जहाँ बुढापा नहीं है, जहाँ रोगों का आक्रमण नहीं है, जहाँ चिंताएं आस-पास खड़ी दिखाई नहीं देतीं, जहाँ बाधाए आगे बढ कर तुम्हारा रास्ता नहीं रोक पाती
क्योंकि मैं तुम्हारे साथ हूँ, क्योंकि तुम्हारे पांव मेरे पांव के साथ आगे बढ रहे हैं, क्योंकि तुम्हारे जीवन का ध्यान रखने वाला, तुम्हारे जीवन को आह्लादकारक बनाने वाला और तुम्हारे जीवन के प्रत्येक क्षण का हिसाब-किताब रखने वाला साथ है
और में कहता हूँ कि अब तुम्हारे द्वारा दी हुई पीड़ाएं मेरा मन झेलने के लिए तैयार नहीं है, कब तक आप बार-बार जन्म लेते रहेंगे, कब तक आप मॉल-मूत्र से लिप्त जिंदगी को ढोते रहेंगे, कब तक आप इन अभावों कि विषैली हवा में साँस लेते रहेंगे, कब तक आप अपने जीवन को जलाते रहेंगे, आखिर कब तक ?
और यह गुरु पूर्णिमा तुम्हारे इन ‘कब तक’ का उत्तर पाने का पर्व है, यह आनंद और सौभाग्य का पर्व है, यह आनन्द और सौभाग्य प्राप्त करने का अवसर है, यह एक ऐसा क्षण है, जहाँ से गुजरने पर सब कुछ प्राप्त हो सकता है, यह एक ऐसा त्यौहार है, जब तुम अपने जीवन कि गहराई में उतर सकोगे, अपने प्राणों से एकाकार हो सकोगे, अपने प्राणों के माध्यम से मुझे पहिचान सकोगे और देख सकोगे कि पिछले कई-कई जन्मों से इन्हीं प्राणों से एकीकृत हो, पहली बार अनुभव कर सकोगे कि इस क्षण से तुम, निर्मल पवित्र और दिव्य बन कर समाज से ऊपर उठ कर अपना व्यक्तित्व स्पष्ट कर सकोगे
और मैं इस गुरु पूर्णिमा पर यह सब कुछ करने के लिए कृत संकल्प हूँ, इस गुरु पूर्णिमा पर मानस के समुद्र में गहराई के साथ तुम्हारे साथ डुबकी लगाने के लिए तैयार हूँ, इस गुरु पूर्णिमा पर तुम्हारी हथेलियाँ मोतियों से भरने के लिए उद्दित हूँ, मैं इस गुरु पूर्णिमा पर दुर्गन्ध युक्त विषैले वातावरण से बाहर निकाल कर आनन्द के उद्यान में खड़ा कनरे के लिए प्रयत्नशील हूँ, जहाँ तुम सद्गुरु की सुगंध से आप्लावित हो सको, गहराई के साथ साँस ले सको, अपने प्राणों में आनन्द की प्राणवायु भर सको, अपने रक्त को नई चेतना दे सको, अपने जीवन को नए ढंग से आवाज़ दे सको, अपनी आँखों में एक नई चमक, एक नया ओज ला सको, और तुम्हारे चेहरे पर दृढ़ता आ सके, तुम्हारा सिर गर्व से ऊँचा उठ सके, तुम सही अर्थों में अपने पंख फडफडा सको, और इस नीले आकाश में पूरी क्षमता के साथ उड़कर समस्त ब्रह्माण्ड को अपनी बाँहों में समेत सको
मैं इन सब के लिए ही गुरु पूर्णिमा पर आवाज दे रहा हूँ, क्योंकि यह तुम्हारा स्वंय का पर्व है यदि शिष्य सही अर्थों में शिष्य है, यदि सही अर्थों में वह मेरी आत्मा का अंश है, यदि सही अर्थों में मेरी प्राणश्चेतना है, तो उसके पांव किसी भी हालत में रुक नहीं सकते, समाज उसका रास्ता रोक नहीं सकता, परिवार उसके पैरों में बेडियाँ डाल नहीं सकता, वह तो हर हालत में आगे बढकर गुरु चरणों में, मुझ में एकाकार होगा ही, क्योंकि यह एकाकार होना ही जीवन की पूर्णता है, और यदि ऐसा नहीं हो सका तो वह शिष्यता ही नहीं है, वह तो कायरता है, बुदजिली है, कमजोरी है, नपुंसकता है, और मुझे विश्वास है, कि मेरे शिष्यों के साथ इस प्रकार के घिनौने शब्द नहीं जुड़ सकते
और यह सब ऋण तुम्हारे ऊपर है, इस जन्म का ही नहीं, पिछले कई जन्मों के ऋण तुम्हारे ऊपर हैं, और यह पर्व उस गुरु ऋण से उऋण होने का पर्व है, यह पर्व सही अर्थों में अपने आप को मुक्त करने का पर्व है, सही अर्थों में आनन्द प्राप्त करने का पर्व है, और पिछले कई जन्मों से जो कुछ ऋण तुम्हारे ऊपर हो गया है, उससे पूर्णता: मुक्ति पाने का, उऋण होने का पर्व है
और मैं इस पर्व पर दोनों बाहें फैलाये प्रतीक्षा कर रहा हूँ